रुढ़ियों की लकीर अब
दीवार बन रही है
आज की हवा तो कहीं
और बह रही है।
पुराने नियम कायदे अब
कालातीत हो रहे हैं
आपके विचार दहलीज के
भीतर क्यों सड़ रहे हैं।
बेटी बाहर जाकर जब नाम
और धन कमाती है
तो विचारों को दहलीज
भी लांघती चली जाती है।
घर की दहलीज को अब
किनारे कर लीजिए
नयी हवा के साथ बेटी को
नये अवसर दीजिए।
पारिवारिक संस्कार अभी भी
सबके लिए जरूरी हैं रूढ़ियां लेकिन समाज पर
बोझ और गैर जरूरी हैं।
बेटी को दबाएं नहीं पढ़ाएं
और समझदार बनाएं
जमाने की रफ्तार के अनुरूप
उसे चलना सिखाएं।
पराए घर जाकर भी बेटी से
रिश्ते नाते नहीं टूट पाएंगे
कोशिश करेंगे तो दोनों घर
एकता की डोर से बंध जाएंगे।
बेटे पराये हो भी जायें मगर
बेटियां निभाती हैं
नजर घुमा लीजिए
बेटियां नहीं बदल पाती हैं।
मेरे विचारों का बेटों गलत
अर्थ मत निकाल लेना
इच्छा है बेटियों को बेटों
जैसा ही महत्व देना।
महेश खरे
पूर्व स्थानीय संपादक, हिन्दुस्तान